हुमायूँ का परिचय:
हुमायूँ का जन्म 17 मार्च 1508 को काबुल (अफगानिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबर था, जो मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक थे। हुमायूँ, बाबर के बड़े बेटे थे और उनका नाम 'नसीरुद्दीन मुहम्मद' था, जिसे बाद में 'हुमायूँ' कहा जाने लगा। हुमायूँ के अन्य तीन भाई कामरान, अस्करी और हिंदाल थे। बाबर की मृत्यु के पश्चात हुमायूँ 29 दिसंबर 1530 ईसवी को आगरा की गद्दी पर बैठा, उस समय हुमायूँ की उम्र 23 वर्ष थी। हुमायूँ एक कला प्रेमी थे। उन्होंने विज्ञान, कला, और साहित्य को प्रोत्साहित किया और अपने दरबार में कला के क्षेत्र में विकास को समर्थन किया। हुमायूँ की मृत्यु 27 जनवरी 1556 को पुस्तकालय के सीढ़ियों से गिरने के कारण हुई।
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हुमायूँ और शेरशाह के मध्य हुए युद्ध:
चौसा का युद्ध (मार्च 1539)
चौसा का युद्ध हुमायूँ और शेरशाह के अफ़गान सेना के मध्य बक्सर के समीप कर्मनासा नदी के तट पर स्थित चौसा नामक स्थान पर हुआ था। इस युद्ध में हुमायूँ का पराजय हुआ और हुमायूँ को अपना जान बचाकर भागना पड़ा।
बिलग्राम/कन्नौज का युद्ध (मई 1540)
हुमायूँ और शेरशाह के मध्य पुनः कन्नौज के निकट बिलग्राम नामक स्थान पर गंगा नदी के किनारे युद्ध हुआ, किन्तु एक बार फिर से हुमायूँ को हार का स्वाद चखना पड़ा। इस युद्ध में पराजय ने हुमायूँ को पलायन के लिए विवश कर दिया और सिंध और मारवाड़ के शासक मालदेव द्वारा शरण न दिए जाने के कारण वह ईरान की ओर प्रस्थान कर गया।
हुमायूँ का साम्राज्य पुनः प्राप्ति:
हुमायूँ ने 1555 ईसवी को बैरम खान की सहायता से 'सरहिन्द के युद्ध' में सिकंदर सुर को हराकर दिल्ली, आगरा, संभाल आदि क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया। 1555 में ही उसने सिकंदर सुर के सरदारों में से एक तातार खान को 'मच्छीवरा के युद्ध' में पराजित किया था। इसके मात्र एक वर्ष पश्चात पुस्तकालय से गिरने के कारण हुमायूँ की मृत्यु हो गई और इसी वर्ष 1556 में ही उसके पुत्र अकबर का राज्याभिषेक हुआ।
सूर साम्राज्य: शेरशाह सूरी एवं उनकी शासन व्यवस्था
- शेरशाह के बचपन का नाम फरीद था। उसका जन्म 1486 में जौनपुर के समीप हुआ था। फरीद ने अरबी और फारसी की शिक्षा जौनपुर के एक मदरसे में ग्रहण किया था।
- 1540 ईसवी में शेरशाह ने हुमायूँ को हराकर सूर साम्राज्य की नींव डाली। अपने शासन के दौरान शेरशाह ने ढेर सारे विकसात्मक एवं कलात्मक व्यवस्थाएं एवं संरचनाएं स्थापित की।
- 1545 ईसवी में कालिंजर अभियान के दौरान एक तोप का गोला लगने से शेरशाह की मृत्यु हो गई। इसके बाद शेरशाह का दूसरा पुत्र जलाला खान सिंहासन पर बैठा और इस्लामशाह की उपाधि के साथ शासनरूढ़ हुआ।
- शेरशाह का मकबरा बिहार के सासाराम में स्थित है। अपने मृत्यु से पहले 1945 ईसवी में ही शेरशाह ने दिल्ली स्थित 'पुराना किला' के अंदर किला-ए-कुहना नामक मस्जिद का निर्माण करवाया था।
- शेरशाह ने अनेक सड़कों का निर्माण करवाया साथ ही पुरानी सड़कों की मरम्मत करवायी। उनके द्वारा बनवाई गई पूर्वी बंगाल से पेशावर मार्ग (बंगाल में सोनार गाँव से शुरू होकर दिल्ली, लाहौर होती हुई पेशावर तक) 'सड़क-ए-आजम' कहलाई।
- शेरशाह ने पट्टा एवं कबूलियत की व्यवस्था प्रारंभ की थी, जिसके अनुसार प्रत्येक किसान को सरकार की ओर से एक पट्टा दिया जाता था जिसमें उसके जमीन का क्षेत्रफल एवं अन्य बातों के अलावा लगान का विवरण रहता था। इसके माध्यम से किसान राज्य को लगान देने के लिए प्रतिबद्ध था।
सूर साम्राज्य में मुद्रा व्यवस्था:
- शेरशाह सूरी ने प्रचलित मुद्रा व्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार किया था उसने खराब मुद्राओं को प्रचलन से निकाल दिया तथा कम मूल्य के सिक्कों का प्रचलन शुरू किया। तांबे के सिक्कों को दाम कहा जाता था। शेरशाह ने चांदी के रुपयों को प्रचलन में लाया जो 1835 ईसवी तक चलन में रहा।
- चांदी के एक रुपये की कीमत तांबे के 64 दाम के बराबर थे, अर्थात तांबे और चांदी के विनिमय दरों का अनुपात 64:1 था।
- शेरशाह ने 167 ग्रेन के सोने का सिक्का भी चलवाया, जिन्हें अशर्फी कहा जाता था। चांदी के सिक्कों का वजन 180 ग्रेन था जिसमे 173 ग्रेन विशुद्ध चांदी था।
- आकार-प्रकार में शेरशाह द्वारा ढलवाए गए सिक्के गोलाकार और चौकोर होते थे तथा उन पर अरबी, फारसी तथा देवनागरी लिपियों में शेरशाह के नाम खुदे रहते थे। कुछ सिक्कों पर उनके नाम के अलावा इस्लाम के प्रथम चार खलिफ़ाओ का नाम भी खुद रहता था।
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